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तुराब अली दकनी

1717 | बीजापुर, भारत

तुराब अली दकनी के अशआर

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चतुर्भुज नाम है उस का कि जिस को वासुदेव कहते

छबेली छब दामोदर की त्रिभंगी प्यारी है

मिस्र सें ले कर ख़बर यूसुफ़ की जो क़ासिद गया

दीदा-ए-या’क़ूब रौशन बू-ए-पैराहन किया

ख़ुश नहीं इफ़शा-ए-राज़-ए-दिल-रुबा पेश-ए-उमूम

हातिफ़-ए-ग़ैबी मुझे इज़हार कहता है कि बोल

तब हुआ इज़हार ए'जाज़-ए-असा-ए-मूसवी

जब चोब-ए-ना-तराशीदा के तईं सोहन किया

असीर-ए-काकुल-ए-ख़म-दार हूँ मैं

गिरफ़्तार-ए-कमंद-ए-यार हूँ मैं

नहीं यारो ख़ुदा हरगिज़ तुम्हारे सुँ जुदा हैगा

जिधर देखे उधर ममलू सदा नूर-ए-ख़ुदा हैगा

'तुराब' होता है अश्क-ए-बाराँ अपस में तूँ बोल राज़-दाराँ

हर एक गुलशन में नौ-बहाराँ घड़ी में कुछ होर घड़ी में कुछ हैं

किया जो मुझ तरफ़ गुल-रू नज़र आहिस्ता आहिस्ता

वो पहुँची बुलबुल-ए-दिल कूँ ख़बर आहिस्ता आहिस्ता

अरे दिल मिस्ल-ए-बुलबुल चुप हमेशा नाला-ज़न है तूँ

कहीं गुल-पैरहन गुल-रू की पाया कुछ ख़बर है रे

देखे जो यक-ब-यक गुल-रू तुम्हारी बे-हिजाबी हम

मिसाल-ए-बुलबुल-ए-शैदा किए अपनी ख़राबी हम

कर गरेबाँ चाक अपना गुल नमत भुहीं पर गिरा

दर्द-ए-दिल बुलबुल सौं सुन कर गुल-ए-ख़ंदाँ मिरा

हमेशा दामन-ए-गुल मिस्ल-ए-शबनम

हुआ मस्कन मिरे तिफ़्ल-ए-नेन का

आया क्या सबब अब अलग रहा दिल-ए-इंतिज़ार आख़िर

जहाँ होवे वहाँ जा कर मुझने होना निसार आख़िर

दीदा-ए-बीना-ओ-नाबीना के तईं रौशन किया

यक निगह में गुलख़न-ए-वीराँ कूँ गुलशन किया

नाला-ए-बुलबुल हुआ नाक़ूस-ए-दैर

गुल किया जिस वक़्त गुलज़ार-ए-बुताँ

'तुराब' जब गुल-बदन के दर्द सूँ गिर्यां किया

दामन-ए-गुल पर मिरा हर अश्क दुर्दाना हुआ

बाँद कर गुलनार चीरा गुल-बदन जाता है बाग़

आज ख़ातिर में तिरे बुलबुल की मिस्मारी है क्या

नहीं यारो ख़ुदा हरगिज़ तुम्हारे सुँ जुदा हैगा

जिधर देखे उधर ममलू सदा नूर-ए-ख़ुदा हैगा

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