इज़हार पर अशआर
इज़हारः इज़हार का लुग़वी
मा’नी है ज़ाहिर करना या बयान करना। वो बयान जो अ’दालत या हाकिम के रूबरू दिया जाता है उसे भी इज़हार कहा जाता है। किसी फ़रीक़-ए- मुक़द्दमा या गवाह वग़ैरा के बयान को भी इज़हार कहा जाता है।सूफ़ी शो’रा ने लफ़्ज़-ए-इज़हार को किन मा’नी में इस्ति’माल किया है उन्हें यहाँ पढ़ें।
अश्कों ने बयाँ कर ही दिया राज़-ए-तमन्ना
हम सोच रहे थे अभी इज़हार की सूरत
मजबूर-ए-सुख़न करता है क्यूँ मुझ को ज़माना
लहजा मिरे जज़्बात का इज़हार न कर दे
वोई मारे अनल-हक़ दम करे इज़हार सिर्र बहम
कोई बाँधै कमर मोहकम जो आपे-आप सूँ लड़ना
शक्ल-ए-आदम के सिवा और न भाया नक़्शा
सारे आ’लम में ये इज़हार है अल्लाह अल्लाह
कौन है किस से करूँ दर्द-ए-दिल अपना इज़हार
चाहता हूँ कि सुनो तुम तो कहाँ सुनते हो
असरार-ए-मोहब्बत का इज़हार है ना-मुम्किन
टूटा है न टूटेगा क़ुफ़्ल-ए-दर-ए-ख़ामोशी
हम से कहते हैं करेंगे आज इज़हार-ए-करम
इस से कुछ मतलब नहीं महफ़िल में तू हो या न हो
और भी उन ने 'बयाँ' ज़ुल्म कुछ अफ़्ज़ूद किया
किया उस शोख़ से तीं इश्क़ का इज़हार अबस
ख़ुश नहीं इफ़शा-ए-राज़-ए-दिल-रुबा पेश-ए-उमूम
हातिफ़-ए-ग़ैबी मुझे इज़हार कहता है कि बोल
बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा
अब तो इज़हार-ए-मोहब्बत बरमला होने लगा
तब हुआ इज़हार ए'जाज़-ए-असा-ए-मूसवी
जब ओ चोब-ए-ना-तराशीदा के तईं सोहन किया
‘बेदार’ करूँ किस को में इज़हार-ए-मोहब्बत
बस दिल है मिरा महरम-ए-असरार-ए-मोहब्बत
कलीम बात बढ़ाते न गुफ़्तुगू करते
लब-ए-ख़ामोश से इज़हार-ए-आरज़ू करते
कहीं है अ’ब्द की धुन और कहीं शोर-ए-अनल-हक़ है
कहीं इख़्फ़ा-ए-मस्ती है कहीं इज़हार-ए-मस्ती है
एक दिन तुझ को दिखाऊँगा मैं इन ख़ूबाँ को
दावा-ए-यूसुफ़ी करते तो हैं इज़हार बहुत
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere