Sufinama
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कबीर

1440 - 1518 | लहरतारा, भारत

पंद्रहवीं सदी के एक सूफ़ी शाइ’र और संत जिन्हें भगत कबीर के नाम से भी जाना जाता है, कबीर अपने दोहे की वजह से काफ़ी मशहूर हैं, उन्हें भक्ति तहरीक का सबसे बड़ा शाइ’र होने का ए’ज़ाज़ हासिल है

पंद्रहवीं सदी के एक सूफ़ी शाइ’र और संत जिन्हें भगत कबीर के नाम से भी जाना जाता है, कबीर अपने दोहे की वजह से काफ़ी मशहूर हैं, उन्हें भक्ति तहरीक का सबसे बड़ा शाइ’र होने का ए’ज़ाज़ हासिल है

कबीर की साखी

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कबीर संगत साध की हरै और की ब्याधि

संगत बुरी असाध की आठो पहर उपाधि

जब मैं था तब गुरु नहीं अब गुरू है हम नाहीँ

प्रेम गली अति साँकरी ता में दो समांंहि

संगति भई तो क्या भया हिरदा भया कठोर

नौ नेजा पानी चढ़ै तऊ भीजै कोर

राम बुलावा भेजिया दिया 'कबीरा' रोय

जो सुख साधू संग में सो बैकुंठ होय

प्रीतम को पतियाँ लिखूँ जो कहुँ होय बिदेस

तन में मन में नैन में ता को कहा सँदेस

सुखिया सब संसार है खावै सोवै

दुखिया दास 'कबीर' है जागै रोवै

आठ पहर चौंसठ घड़ी मेरे और कोय

नैना माहीं तू बसै नींद को ठौर होय

प्रेंम छिपाया ना छिपै जा घट परघट होय

जो पै मुख बोलै नहीं तो नैन देत हैं रोय

प्रेम बिना धीरज नहीं बिरह बिना बैराग

सतगुरु बिन जावै नहीं मन मनसा का दाग़

जो आवै तो जाय नहिं जाय तो आवै नाहिं

अकथ कहानी प्रेम की समुझि लेहु मन माहिँ

एक सीस का मानवा करता बहुतक हीस

लंकापति रावन गया बीस भुजा दस सीस

आया बगूला प्रेम का तिनका उड़ा अकास

तिनका तिनका से मिला तिनका तिनके पास

प्रेम तो ऐसा कीजिये जैसे चंद चकोर

घींच टूटि भुइँ माँ गिरै चितवै वाही ओर

आया प्रेम कहाँ गया देखा था सब कोय

छिन रोवै छिन में हँसै सो तो प्रेम होय

मेरा मन तो तुज्झ से तेरा मन कहुँ और

कह कबीर कैसे बनै एक चित्त दुइ ठौर

सो दिन कैसा होयगा गुरू गहेंगे बाँहि

अपना करि बैठावहीं चरन कँवल की छाँहि

साधुन के सतसंग तें थरहर काँपै देंह

कबहुँ भाव कुभाव तें मत मिटि जाय सनेह

बिन पाँवन की राह है बिन बस्ती का देस

बिना पिंड का पुरूष है कहै 'कबीर' सँदेस

जल में बसै कमोदिनी चंदा बसै अकास

जो है जा का भावता सो ताही के पास

धरती अम्बर जायँगैं बिनसैंगे कैलास

एकमेक होइ जायँगैं तब कहाँ रहैंगे दास

प्रीति जो लागी घुलि गइ पैठि गई मन माहि

रोम रोम पिउ पिउ करै मुख की सिरधा नाहिं

जा घट प्रेम संचरै सो घट जानु समान

जैसे खाल लोहार की साँस लेत बिन प्रान

'कबीर' रेख सिंदुर अरू काजर दिया जाय

नैनन प्रीतम रमि रहा दूजा कहाँ समाय

जो ये एकै जानिया तौ जानौ सब जान

जो ये एक जानिया तौ सबही जान अजान

हिरदे भीतर दव बलैं धुआँ परगट होय

जा के लागी सो लखै की जिन लाई सोय

जहाँ प्रेम तहँ नेम नहि तहाँ बुधि ब्यौहार

प्रेम मगन जब मन भया तब कौन गिनै तिथि बार

सबै रसायन मैं किया प्रेम समान कोय

रति इक तन में संचरै सब तन कंचन होय

'कबीर' प्याला प्रेम का अंतर लिया लगाय

रोम रोम में रमि रहा और अमल बया खाय

अनराते सुख सोवना, राते नींद आय

ज्यों जल टूटे माछरी तलफत रैन बिहाय

जब लगि मरने से जरै तब लगि प्रेम नाहिं

बड़ी दूर है प्रेम घर समुझि लेहु मन माहिँ

'कबीर' जंत्र बाजई टूटि गया सब तार

जंत्र बिचार: क्या करै चला बजावनहार

घाटहि पानी सब भरै औघट भरै कोय

औघट घाट 'कबीर' का भरै सो निर्मल होय

ये जिव आया दूर तें जाना है बहु दूर

बिच के बासे बसि गया काल रहा सिर पूर

दास दुखी तो हरि दुखी आदि अंत तिहुँ काल

पलक एक में परगट ह्वै छिन में करै निहाल

जब लग कथनी हम कथी दूर रहा जगदीस

लव लागी कल ना परै अब बोलत हदीस

सब आये उस एक में डार पात फल फूल

अब कहो पाछे क्या रहा गहि पकड़ा जब मूल

अँखियन तो झाँईं परी पंथ निहार निहार

जिभ्या तो छाला परा नाम पुकार पुकार

मरिये तो मरि जाइये छुटि परै जंजार

ऐसा मरना को मरै दिन में सौ सौ बार

प्रेम भाव इक चाहिये भेष अनेक बनाय

भावे गृह में बास कर भावे बन में जाय

सब कछु गुरू के पास है पइये अपने भाग

सेवक मन से प्यार है निसु दिन चरनन लाग

उत्तम प्रीति सो जानिये सतगुरु से जो होय

गुनवंता द्रब्य की प्रीति करै सब कोय

देखत देखत दिन गया निस भी देखत जाय

बिरहिन पिय पावै नहीं बेकल जिय घबराए

पतिबरता बिभिचारिनी एक मंदिर में बास

वह रँग-राती पीव के ये घर घर फिरै उदास

पीया जाहै प्रेम रस राखा चाहै मान

एक म्यान में दो खड़ग देखा सुना कान

लब लागी तब जानिये छूटि कभूँ नहिं जाय

जीवत लव लागी रहै मूए तहँहि समाय

आसै पासै जो फिरै निपट पिसावै सोय

कीला से लागा रहै ता को बिघन होय

कबीर गुरू सब को चहैं, गुरू को चहै कोय

जब लग आस सरीर की तब लग दास होय

नैनों की करि कोठरी पुतली पलँग बिछाय

पलकों की चिक डारि कै पिय को लिया रिझाए

बिरहा बिरहा मत कहों बिरहा है सुल्तान

जा घट बिरह संचरै सो घट जान मसान

सेवक कुत्ता गुरू का मोतिया वा का नाँव

डोरी लागी प्रेम की जित खैंचै तित जाव

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