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हर-लहज़: ब-शक्ले बुत-ए-'अय्यार बर आमद दिल बुर्द-ओ-निहाँ शुद

शम्स मशरिक़ी

हर-लहज़: ब-शक्ले बुत-ए-'अय्यार बर आमद दिल बुर्द-ओ-निहाँ शुद

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MORE BYशम्स मशरिक़ी

    हर-लहज़: ब-शक्ले बुत-ए-'अय्यार बर आमद दिल बुर्द-ओ-निहाँ शुद

    हर-दम ब-लिबास-ए-दिगर आँ यार बर आमद गह पीर-ओ-जवाँ शुद

    हर लहज़ा वह बुत-ए-अय्यार एक नई ही शक्ल में ज़ाहिर होता है, दिल छीनता है और ग़ायब हो जाता है।

    हर दम वह यार दूसरों के लिबास में ज़ाहिर होता है, कभी बूढ़े के रूप में और कभी जवान के।

    ख़ुद-कूज़ः-ओ-ख़ुद-कूज़ः-गर-ओ-ख़ुद-गिल-ए-कूज़ः ख़ुद-रिन्द-ए-सुबू-कश

    ख़ुद-बर-सर-ए-आँ कूज़ः-ख़रीदार बर आमद बशकस्त रवाँ शुद

    वह खुद ही कूज़ा है, खुद ही कूज़ा बनाने वाला और खुद ही कूज़ा की मिट्टी और खुद ही रिंद और मय-ख़्वार है

    खुद वह इस प्याले का ख़रीदार बन कर आता है, और उसे तोड़ कर चला जाता है।

    नै नै कि हमू बूद कि मी-आमद-ओ-मी-रफ़्त हर क़र्न कि दीदे

    ता 'आक़िबत आँ शक्ल-ए-'अरब वार बर-आमद दारा-ए-जहाँ शुद

    वही था जो हर ज़माने में आता रहा और जाता रहा, हर ज़माने ने देखा।

    लेकिन आख़िरकार वह एक अरब की शक्ल में ज़ाहिर हुआ और वही जहान के बादशाह हैं।

    नै नै कि हमू बूद कि मी-गुफ़्त अनल-हक़ दर सौत-ए-इलाही

    'मंसूर' न-बूद आँ कि बर आँ दार बर-आमद नादाँ ब-गुमाँ शुद

    वही था कि जिसने कहा कि मैं ही हक़ हूँ, खु़दा की आवाज़ में।

    वह मंसूर नहीं था जो सूली पर ज़ाहिर हुआ, नादान और ना जानने वालों को यही लगता है कि वह मंसूर था।

    हक़्क़ा कि हमू बूद कि अंदर यद-ए-बैज़ा मी-कर्द शबानी

    दर चोब शुद-ओ-बर सिफ़त-ए-मार बर-आमद ज़ाँ फ़ख़्र-ए-कियाँ शुद

    वही था कि यद-ए-बैज़ा के रूप में था, भेड़ बकरियाँ चराता था।

    फिर वह लकड़ी (लाठी) बना और साँप की शक्ल में बरामद हुआ और बादशाहों का इफ्तिख़ार बना।

    मी-गशत दमी चंद बरीं रू-ए-ज़मीन अज़ बहर-ए-तफ़र्रुज

    'ईसा शुद-ओ-बर गुम्बद-ए-दव्वार बर-आमद तस्बीह कुनाँ शुद

    उसने कुछ अरसा ज़मीन पर सैर की, तफ़रीह के लिए।

    ईसा हुआ और आसमान पर चला गया, तसबीह पढ़ता हुआ।

    मंसूख़ चे बाशद तनासुख़ कि हक़ीक़त आँ दिलबर-ए-ज़ेबा

    शमशीर शुद-ओ-दर कफ़-ए-कर्रार बर-आमद क़त्ताल-ए-ज़माँ शुद

    उसने मंसूख़ किया या वह तनासुख़ था या खू़ब-रू दिलबर की हक़ीक़त था।

    तलवार बना और हज़रत अली कर्रार की शक्ल इख़्तियार की और एक बड़े हुजूम को क़त्ल किया।

    'रूमी' सुख़न-ए-कुफ़्र न-गुफ़्तः अस्त-ओ-न-गोयद मुंकिर न-शवेदश

    काफ़िर बुवद आँ कस कि ब-इंकार बर-आमद अज़ दोज़ख़याँ शुद

    रूमी ने कभी कुफ्र की बात नहीं की और वह करता है, वह मुनकिर नहीं है।

    काफ़िर तो वह है जिसने इनकार किया था यानी शैतान और वही दोज़ख़ियों में से है।

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    फरीद अयाज़

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    मुंशी रज़ीउद्दीन

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