Sufinama

ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो

रियाज़ ख़ैराबादी

ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो

रियाज़ ख़ैराबादी

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    ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर हो

    तो दो घड़ी फ़िराक़ में अपनी बसर हो

    जाना हो नामा-बर का तो आना इधर हो

    ता-फ़ुर्स्त इंतिज़ार से फिर उ'म्र भर हो

    क़ासिद वो भेजिए जिसे अपनी ख़बर हो

    दिल वो बात कर कि किसी का ज़रर हो

    इल्ज़ाम का इ'ताब का उस के ख़तर हो

    ये क्या कि चश्म-ए-मेहर उधर हो इधर हो

    क्यूँ कर कहूँ कि लुत्फ़ कभी ग़ैर पर हो

    हो भी तो गाह गाह मगर इस क़दर हो

    आराम हो सुकून हो सारे जहान को

    जुम्बिश हो ज़मीं की तरह आसमान को

    मैं मुँह में ले के ये कहूँ उस की ज़बान को

    जब वस्ल हो नसीब किसी ख़स्ता जान को

    उस शब की ता क़यामत इलाही सहर हो

    डर है शरीक-ए-रह्म हों दुश्मन-ए-हज़ीं

    तासीर में बला है मिरी आह-ए-आतिशीं

    दिल मोम बन के जाए पिघल ये भी कुछ नहीं

    आए फ़र्क़ संग-दिल्ली में तिरे कहीं

    नाले भी कीजिए वो कि जिन में असर हो

    किस का शहीद-ए-नाज़ चला तिश्ना-काम आज

    फ़िर्दोसियों को है मय-कौसर हराम आज

    ग़िलमान-ओ-हूर करते हैं सब एहतिमाम आज

    सुनते हैं ख़ुल्द में है बहुत धूम धाम आज

    बिस्मिल का तेरे दह्र से अ'ज़्म-ए-सफ़र हो

    मैं वो कि मेरे नाले कलेजे निकाल लें

    तू वो कि तेरी बातें सुनें सब तो जान दें

    दोनों बला-ए-जाँ हैं इ'लाज इस का क्या करें

    रोने से मेरे तेरी अदाओं से बज़्म में

    कोई नहीं जो हाथों से थामे जिगर हो

    जब देखता है लुत्फ़ तिरा जानिब-ए-अ'दू

    तस्वीर-ए-यास फिरती है आँखों के रू-ब-रू

    बहता है चश्म-ए-तर से मिरे ख़ून-ए-आरज़ू

    अफ़्सोस अपने जी से भुलाए उसी को तू

    जिस दिल को तेरी याद में अपनी ख़बर हो

    मुरझा के रह जाए कहीं तू मुझे है डर

    नाज़ुक है दिल तिरा कहीं इस पर हो असर

    बरपा हो हश्र आएँ तलातुम में बहर-ओ-बर

    सातों फ़लक के टुकड़े उड़ें तो उड़ें मगर

    फ़र्याद-ए-ग़ैर दिल में तिरे कार-गर हो

    आफ़त है इज़्तिराब तो बेताबियाँ सितम

    आँखें बिछा रहा हूँ सर-ए-रह क़दम-क़दम

    हमदम तू ही बता मिरे सर की तुझे क़सम

    दिल को नहीं क़रार जो पहलू में एक दम

    पलटा कहीं उधर से मिरा नामा-बर हो

    बेजा उमीद की हो कभी तो उसे सज़ा

    तड़पे तमाम रात पाए तिरा पता

    तू मेरे साथ सर्फ़-ए-तमाशा हो जा-ब-जा

    क्या सैर हो जो ग़ैर से वा'दा हो वस्ल का

    ढूँडे वो सुब्ह तक तुझे तू अपने घर हो

    आए नज़र में बढ़ के वफ़ा से जफ़ा-ए-यार

    कम समझें ख़्वाहिशों से सितम-हाए बे-शुमार

    मतलब की है ये बात बता तू ही ग़म-गुसार

    जौर-ओ-इ'ताब क्यूँ सहें हम हज़ार बार

    लुत्फ़-ओ-करम से भी जो उसे दर-गुज़र हो

    करके लगावटें नज़र-ए-जहाँ गुदाज़ से

    आँसू बहा के दीदा-ए-जादू-तराज़ से

    दिखला के इक अदा निगह-ए-फ़ित्ना-साज़ से

    मुझ को है याद वस्ल में डर डर के नाज़ से

    कहना तिरा कि देख किसी को ख़बर हो

    महशर को तर्ज़-ए-नाज़-ए-सितम-गर समझते हैं

    फ़ित्नों को उस के शोख़ी-ए-दिलबर समझते हैं

    कुछ उस को मुझ से बे-दिल-ओ-मुज़तर समझते हैं

    सब लोग जिस को फ़ितना-ए-मह्शर समझते हैं

    मुझ को ये ख़ौफ़ है कि वही फ़ित्ना-गर हो

    फ़ाँसें जिगर में अपने चुभीं यूँ तो बेशतर

    बरसों खटक सी दिल में भी अपने रही मगर

    बेताबियों में इतनी सी लज़्ज़त की क्या ख़बर

    ज़ौक़-ए-तपिश में चैन कहाँ दिल को चारा-गर

    जब तक कि सीने में ख़लिश-ए-नेश्तर हो

    जौर-ए-फ़लक जफ़ा-ए-ज़माना ग़म-ए-हबीब

    इन सब बलाओं में भी रहीं ख़्वाहिशें अ'जीब

    बन जाए जान पर भी तो या बख़्त या नसीब

    यारब मिरा शरीक हो जिस सदमे में रक़ीब

    इस में मज़ा हो जो मिरी जान पर हो

    ये भी है ख़ौफ़ वो दिल-आज़ुर्दा हो कहीं

    फ़र्क़ आए अपनी बात में तौबा भी कुछ नहीं

    कुछ पास-ए-वज़-ए'-दोस्त तो कुछ पास-ए-रंज-ओ-कीं

    रक्खा है उस ने सोग अ'दू का तो हम-नशीं

    इस ढब से रोइए कि पलक तक भी तर हो

    करता हूँ हाल पर जो ज़रा उन के ग़ौर मैं

    पहले से देखता नहीं अब उन के तौर मैं

    करते हैं वो करम तो समझता हूँ जौर मैं

    वो देखते हैं बैठे निगाहों से और मैं

    डरता हूँ कोई फ़ित्ना तो मद्द-ए-नज़र हो

    दुज़्दीदा इक नज़र हो लगावट की आँख से

    चोरी छुपे की बात है दिल में छुपी रहे

    तकलीफ़-ए-दस्त-ओ-तेग़ है ख़ौफ़ इस लिए

    दुश्मन कहीं रश्क-ए-शहादत से जान दे

    यूँ क़त्ल हों कि क़त्ल मिरा मुश्तहर हो

    खटके हर एक आँख में वो बढ़ के ख़ार से

    ये कुछ नहीं कि हाथ किसी के सके

    मिट जाने पर भी चर्ख़ उसे पेच-ओ-ताब दे

    घुल घुल के ग़ैर ख़्वाहिश-ए-ग़म से ख़ुदा करे

    तार-ए-निगाह हो मगर उस की कमर हो

    लज़्ज़त नसीब मौत की हो मुझ को किस तरह

    बर आए मेरी हसरत-ए-दिल कह दो किस तरह

    रुस्वाई अपने इ'श्क़ की हो बोलो किस तरह

    शोहरत तुम्हारे जौर-ओ-सितम की हो किस तरह

    तश्हीर मेरी लाश अगर दर-बदर हो

    ये तो मजाल क्या है कि इल्ज़ाम उन को दें

    इतना कहीं 'रियाज़' हमारी जो कुछ सुनें

    क्या गई है आज ये हज़रत के ज़ेहन में

    नव्वाब रोज़-ए-हश्र ख़ुदा से शिकायतें

    इतना भी कोई इ'श्क़-ए-बुताँ में निडर हो

    स्रोत :
    • पुस्तक : रियाज़-ए-रिज़वाँ (पृष्ठ 614)
    • रचनाकार : रियाज़ ख़ैराबादी
    • प्रकाशन : किताब मंज़िल,लाहौर (1961)

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