अपनी ग़ुर्बत से तिरी शान से डर लगता है
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अपनी ग़ुर्बत से तिरी शान से डर लगता है
ग़ुलाम मोईनुद्दीन गिलानी
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अपनी ग़ुर्बत से तिरी शान से डर लगता है
आप से हुस्न के सुल्तान से डर लगता है
जी तो चाहता है तिरे 'इश्क़ को इफ़्शा कर दूँ
तेरी 'इज़्ज़त से तिरी आन से डर लगता है
दीदा दानिस्ता जो अंजान बना बैठा हो
ऐसे नादान से अंजान से डर लगता है
राह-रौ राह-ए-मोहब्बत का ख़ुदा हाफ़िज़ हो
इस ख़तरनाक बयाबान से डर लगता है
रंग बदलेगी ये फ़ुर्क़त में न जाने क्या क्या
ऐ ख़ुदा अब मुझे इस जान से डर लगता है
फिर न फिर जाए कहीं मुझ से 'इनायत की नज़र
उस नए 'अह्द से पैमान से डर लगता है
दफ़'अतन उस ने जो रोका है जफ़ाओं से हाथ
हाय इस ज़ूद-पशेमान से डर लगता है
क़ह्र की मुझ पे नज़र हो कि 'इनायत की नज़र
उस बुत-ए-शोख़ की हर शान से डर लगता है
वो तो माइल ब-करम हो ही गए हैं लेकिन
मुझ को बदले हुए नादान से डर लगता है
नाम सुनते ही मिरा मुझ से लिपट कर बोले
मुझ को उस हश्र ब-दामान से डर लगता है
ऐ मोहब्बत के परस्तार सँभल कर चलना
राह-ए-उल्फ़त में हर इक आन से डर लगता है
किस क़दर पास है रुस्वाई का अपनी उन को
राह में मिलने से पहचान से डर लगता है
तोड़ते हैं वो मिरा दिल ये सुना कर मुझ को
मुझ को दो रोज़ के मेहमान से डर लगता है
बात इतनी सी थी पहुँची कहाँ तक या रब
ऐसे बढ़ते हुए तूफ़ान से डर लगता है
उस की रहमत की कोई हद ही नहीं है 'मुश्ताक़'
अपनी ही तंगी-ए-दामान से डर लगता है
- पुस्तक : असरार-उल-मुशताक़
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