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वासिफ़ अली वासिफ़

1929 - 1993 | लाहौर, पाकिस्तान

पाकिस्तान की मशहूर रुहानी शख़्सियत और मुमताज़ मुसन्निफ़

पाकिस्तान की मशहूर रुहानी शख़्सियत और मुमताज़ मुसन्निफ़

वासिफ़ अली वासिफ़ के अशआर

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मिला है जो मुक़द्दर में रक़म था

ज़हे क़िस्मत मिरे हिस्से में ग़म था

अश्कों ने बयाँ कर ही दिया राज़-ए-तमन्ना

हम सोच रहे थे अभी इज़हार की सूरत

चारों-सम्त अंधेरा फैला ऐसे में क्या रस्ता सूझे

पर्बत सर पर टूट रहे हैं पाँव में दरिया बहता है

जिस आँख ने देखा है उस आँख को देखूँ

है उस के सिवा क्या तेरे दीदार की सूरत

सँभल जाओ चमन वालो ख़तर है हम कहते थे

जमाल-ए-गुल के पर्दे में शरर है हम कहते थे

उस का चेहरा कब उस का अपना था

जिस के चेहरे पर मर मिटे चेहरे

इक चेहरे से प्यार करूँ मैं इक से ख़ौफ़ लगे है मुझ को

इक चेहरा इक आईना है इक चेहरा पत्थर लगता है

वजूद-ए-ग़ैर हो कैसे गवारा

तिरी राहों में बे-साया गया हूँ

मेरी सुंदरता के गहने छीन के वो कहता है मुझ से

वो इंसान बहुत अच्छा है जो हर-हाल में ख़ुश रहता है

ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-अय्याम के साँचे में ढलता है

कि इक ग़म दूसरे का चारागर है हम कहते थे

अजब ए'जाज़ है तेरी नज़र का

कि हम भूले हैं रस्ता अपने घर का

मिला है जो मुक़द्दर में रक़म था

ज़हे क़िस्मत मिरे हिस्से में ग़म था

जिसे तू राएगाँ समझा था 'वासिफ़'

वो आँसू इफ़्तिख़ार-ए-जाम-ए-जम था

पत्ते टूट गए डाली से ये कैसी रुत आई

माला के मनके बिखरे हैं दे गए यार जुदाई

इक चेहरे से प्यार करूँ मैं इक से ख़ौफ़ लगे है मुझ को

इक चेहरा इक आईना है इक चेहरा पत्थर लगता है

ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-अय्याम के साँचे में ढलता है

कि इक ग़म दूसरे का चारागर है हम कहते थे

इक चेहरे से प्यार करूँ मैं इक से ख़ौफ़ लगे है मुझ को

इक चेहरा इक आईना है इक चेहरा पत्थर लगता है

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