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मयकश अकबराबादी

1902 - 1991 | आगरा, भारत

मयकश अकबराबादी के अशआर

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इस अदा से मैं ने देखे दाग़ अपने ख़ून के

इक तमाशा रोज़-ए-महशर उन का दामाँ हो गया

तिरी आमादगी क़ातिल तबस्सुम है मोहब्बत का

तवज्जोह गर नहीं मुज़्मर तो क़स्द-ए-इम्तिहाँ क्यूँ हो

मैं ने पूछा ग़ैर के घर आप क्या करते रहे

हँस के फ़रमाया तुम्हारा रास्ता देखा किए

ये फ़रेब-ए-तस्कीं है तर्क-ए-आरज़ू मा’लूम

तर्क-ए-आरज़ू 'मैकश' ये भी आरज़ू ही है

मैं ने पूछा ग़ैर के घर आप क्या करते रहे

हँस के फ़रमाया तुम्हारा रास्ता देखा किए

तिरे कूचे की हो जाये तो अच्छा

ख़ुदा जाने ये मिट्टी है कहाँ की

ज़ीस्त मेरी और ये अय्याम-ए-फ़िराक़

उम्मीद-ए-वस्ल तेरा काम है

तू हक़ीक़त-ए-कुल है वहम ग़ैर-ए-बातिल है

बल्कि वहम-ए-बातिल भी हक़ तो ये है तू ही है

दिल मिटा जाता है आज उन का ये आलम देख कर

शर्मगीं हैं ग़ैर से सरगोशियाँ होने के बाद

सहते सहते ग़म मोहब्बत के ये हालत हो गई

हँस के बोला जो कोई उस से मोहब्बत हो गई

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