Sufinama

आरज़ू पर अशआर

आरज़ूः ये असलन फ़ारसी

ज़बान का लफ़्ज़ है। इस्म-ए-जामिद है। उर्दू में अस्ली हालत और अस्ली मा’नी में ही मुस्त’मल है। उर्दू में सबसे पहले 1543 ई’स्वी में क़लमी नुस्ख़ा “भोग भल” में इसका इस्ति’माल मिलता है। इसका लुग़वी मा’नी तमन्ना, अरमान, इश्तियाक़, मिन्नत समाजत, इल्तिजा, ख़ुशामद वग़ैरा होता है।आरज़ू से मुतअ’ल्लिक़ सूफ़ी शो’रा के कलाम यहाँ पढ़ें।

आरज़ू दारम कि मेहमानत कुनम

जान-ओ-दिल दोस्त क़ुर्बानत कुनम

रूमी

साग़र की आरज़ू है पैमाना चाहिए

बस इक निगाह-ए-मुर्शिद-ए-मय-ख़ाना चाहिए

बेदम शाह वारसी

आरज़ू ये है तुम्हारा आँचल आँखों से लगे

कुछ समझते हो कि हम रोते हुए आते हैं क्यूँ

आसी गाज़ीपुरी

रफ़्त यार आरज़ू-ए-ऊ ज़े-जान-ए-मन न-रफ़्त

नक़्श-ए-ऊ अज़ पेश-ए-चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशान-ए-मन न-रफ़्त

अमीर ख़ुसरौ

दारम हम: जा बा-हमः-कस दर हम: हाल

दर दिल ज़े-तू आरज़ू दर दीद:-ख़्याल

जामी

आरज़ू हसरत तमन्ना मुद्दआ कोई नहीं

जब से तुम हो मेरे दिल में दूसरा कोई नहीं

पुरनम इलाहाबादी

आरज़ू है कि तिरा ध्यान रहे ता-दम-ए-मर्ग

शक्ल तेरी नज़र आए मुझे जब आए अजल

मोहसिन काकोरवी

हर आँख को है तिरी तमन्ना

हर दिल में तिरी ही आरज़ू है

आ’रिफ़ इस्लामपुरी

आरज़ू है 'वफ़ा' यही अपनी

उन के क़दमों में दम निकल जाए

वफ़ा वारसी

ये फ़रेब-ए-तस्कीं है तर्क-ए-आरज़ू मा’लूम

तर्क-ए-आरज़ू 'मैकश' ये भी आरज़ू ही है

मयकश अकबराबादी

तेरी उल्फ़त शो'बदा-पर्वाज़ है

आरज़ू गर है तमन्ना-साज़ है

बेदम शाह वारसी

कहीं रुख़ बदल ले अब मिरी आरज़ू का धारा

वो बदल रहे हैं नज़रें मिरी ज़िंदगी बदल कर

अज़ीज़ वारसी देहलवी

इसे भी नावक-ए-जानाँ तू अपने साथ लेता जा

कि मेरी आरज़ू दिल से निकलने को तरसती है

बेदम शाह वारसी

आरज़ू थी कर्बला में दफ़्न होते 'अर्श' हम

देखते मर कर भी रौज़ा हज़रत-ए-शब्बीर का

अ‍र्श गयावी

पहुँच जाती है किसी के गोश-ए-दिल तक

हमारी आरज़ू इतनी कहाँ है

बेनज़ीर शाह वारसी

हसरत-ओ-यास-ओ-आरज़ू शौक़ का इक़्तिदा करें

कुश्ता-ए-ग़म की लाश पर धूम से हो नमाज़-ए-इ’श्क़

बेदम शाह वारसी

मुद्दतों से आरज़ू ये दिल में है

एक दिन तू घर हमारे आइए

मीर मोहम्मद बेदार

उस वक़्त तक सुलगती रही उस की आरज़ू

जब तक धुएँ से सारा बदन भर नहीं गया

मुज़फ़्फ़र वारसी

बाद-ए-रहमत मदीना से चलती रहे

ग़ुंचा-ए-आर्ज़ू मुस्कुराता रहे

हामिद वारसी गुजराती

इस आरज़ू से हज़र ख़ू-ए-ज़िंदगी से हज़र

जो ताब-ओ-ताक़त-ए-इज़्हार-ए-लब-कुशाई दे

अख़तर वारसी

दोनों जानिब अगर आरज़ू वस्ल की कोई तूफ़ाँ उठाए तो मैं क्या करूँ

इ’श्क़ उन्हें गुदगुदाए तो वो क्या करें हुस्न मुझ को बुलाए तो मैं क्या करूँ

आरज़ू हम नाख़ुदा की क्यूँ करें

अपनी कश्ती का तो अफ़सर और है

मरदान सफ़ी

रही ये आरज़ू आख़िर के दम तक

पहुँचा सर मिरा तेरे क़दम तक

ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़

गुनह कुछ होर भी करना तो कर ले आरज़ू मत रख

नहीं तेरे गुनाहाँ कूँ तो कच्चा हद्द-ओ-शुमार आख़िर

तुराब अली दकनी

पूछते हैं वो आरज़ू 'कौसर'

दिल में अरमाँ एक हो तो कहूँ

कौसर वारसी

ये आरज़ू है कि वो नामा-बर से ले काग़ज़

बला से फाड़ के फिर हाथ में ले काग़ज़

एहसनुल्लाह ख़ाँ बयान

अ’रबी नहीं अ’जमी सही मगर आरज़ू है कि 'वारिसी'

कभी अपना नग़्मा-ए-मश्रिक़ी मैं सुनूँ नवाए-हिजाज़ में

सीमाब अकबराबादी

अंजुमन-साज़-ए-ऐ’श तू है यहाँ

और फिर किस की आरज़ू है यहाँ

मीर मोहम्मद बेदार

मोहब्बत में सरापा आरज़ू-दर-आरज़ू मैं हूँ

तमन्ना दिल मिरा है और मिरे दिल की तमन्ना तू

मुज़्तर ख़ैराबादी

मेरा दम भी समा'अ' में निकले

अब यही है इक आरज़ू ख़्वाजा

मुईन निज़ामी

कलीम बात बढ़ाते गुफ़्तुगू करते

लब-ए-ख़ामोश से इज़हार-ए-आरज़ू करते

रियाज़ ख़ैराबादी

मिलें भी वो तो क्यूँकर आरज़ू बर आएगी दिल की

होगा ख़ुद ख़याल उन को होगी इल्तिजा मुझ से

हसरत मोहानी

तसव्वुर में वो आएँगे तो पूरी आरज़ू होगी

वो मेरे पास होंगे और उन से गुफ़्तुगू होगी

सदिक़ देहलवी

अब तो 'सादिक़' है ये आरज़ू

इ’श्क़ ही मेरी मंज़िल बने

सदिक़ देहलवी

निकले जब कोई अरमाँ कोई आरज़ू निकली

तो अपनी हसरतों का ख़ून होना इस को कहते हैं

राक़िम देहलवी

हमारी आरज़ू दिल की तुम्हारी जुम्बिश-ए-लब पर

तमन्ना अब बर आती है अगर कुछ लब-कुशा तुम हो

राक़िम देहलवी

बयान-ए-दर्द-आगीं है कहेगा जा के क्या क़ासिद

हदीस-ए-आरज़ू मेरी परेशाँ दास्ताँ मेरी

राक़िम देहलवी

चश्म-ए-हक़-बीं हो चुकी है शाद-काम-ए-आर्ज़ू

तोड़ता है अब तिलिस्म-ए-जल्वा-ए-बातिल मुझे

पंडित शाएक़ वारसी

मुझे हर-क़दम तेरी जुस्तुजू मुझे हर-नफ़स तेरी आरज़ू

मुझे अपना ग़म है ग़म-ए-जहाँ तेरी शान जल्ला-जलालुहु

माएल वारसी

सिखाई नाज़ ने क़ातिल को बेदर्दी की ख़ू बरसों

रही बेताब सीना में हमारी आरज़ू बरसों

अज़ीज़ सफ़ीपुरी

यही आरज़ू दिल में धरता अछे

ख़ुदा सूँ मुनाजात करता अछे

फ़ायज़

लगते ही ठेस टूट गया साज़-ए-आरज़ू

मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर चूर था

जिगर मुरादाबादी

कुछ आरज़ू से काम नहीं 'इ’श्क़' को सबा

मंज़ूर उस को है वही जो हो रज़ा-ए-गुल

ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़

मिरी आरज़ू के चराग़ पर कोई तब्सिरा भी करे तो क्या

कभी जल उठा सर-ए-शाम से कभी बुझ गया सर-ए-शाम से

अज़ीज़ वारसी देहलवी

ये आरज़ू है कि मे’राज-ए-ज़िंदगी हो जाए

ग़ुलाम की दर-ए-आक़ा पे हाज़िरी हो जाए

एजाज़ वारसी

तुम्हारे तलवों के आरज़ू में पिसी हुई है घुली हुई है

हिना की सरसब्ज़ पत्तियों में जो लाल रंगत छिपी हुई है

मुज़्तर ख़ैराबादी

दी सदा ये हातिफ़-ए-ग़ैबी ने हंगाम-ए-दुआ’

आरज़ू पूरी 'अ’ज़ीज़-ए-वारसी' हो जाएगी

अज़ीज़ वारसी देहलवी

साहिल की आरज़ू नहीं ता'लीम-ए-मुस्तफ़ा

ये नाव तो रोज़ानः ही मंजधार से हुई

मुज़फ़्फ़र वारसी

खिलती कली गो मिरी आरज़ू की

गिरह उन के बंद-ए-क़बा की तो होती

बेनज़ीर शाह वारसी

मुझे ऐश-ओ-ग़म में ग़रज़ नहीं अगर आरज़ू है तो है यही

कि उमंग बन के छुपा रहे कोई दिल के पर्दा-ए-राज़ में

वली वारसी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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