Sufinama

क़मर पर अशआर

क़मर/चांदः क़मर, चांद,

माह, महताब वग़ैरा हम-मा’नी अल्फ़ाज़ हैं। इनका इस्ति’माल इस्तिआ’रा के तौर पर महबूब के लिए होता है।महबूब-ए-हक़ीक़ी के जलाल में तुंदी, तेज़ी और तपिश होती है लेकिन इसके जमाल में ख़ुनकी और नर्मी होती है।रौशन चीज़ों से मुराद ज़ुहूर-ए-जमाल होता है।

अभी क्या है ‘क़मर’ उन की ज़रा नज़रें तो फिरने दो

ज़मीं ना-मेहरबाँ होगी फ़लक ना-मेहरबाँ होगा

क़मर जलालवी

ये बहुत अच्छा हुआ आएँगे वो पहले पहर

चांदनी भी ख़त्म जब तक ‘क़मर’ हो जाएगी

क़मर जलालवी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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