Sufinama

ख़ौफ़ पर अशआर

ख़ौफ़ः अ’रबी ज़बान से मुश्तक़

इस्म है।उर्दू में भी बतौर-ए-इस्म मुस्ता’मल है। 1625 ई’स्वी में “बिकट कहानी” में इसका इस्ति’माल हुआ है। इसका लुग़वी मा’नी डर, ख़तरा , बीम ,हौल वग़ैरा होता है।तसव्वुफ़ में ख़ौफ़ उसे कहते हैं कि अपने आपको अम्र-ए-मकरूह से बचाया जाए और बजा-आवरी-ए-अहकाम-ए-हक़ में उ’बूदियत के साथ सर-गर्म रहा जाए।

कुछ तो कर खौफ़-ए-खुदा दिल में ज़ालिम अपने

दिल-ए-उ’श्शाक़ को इस तरह़ से बर्बाद कर

बाँके लाल

मोहब्बत ख़ौफ़-ए-रुस्वाई का बाइ'स बन ही जाती है

तरीक़-ए-इश्क़ में अपनों से पर्दा हो ही जाता है

मुज़्तर ख़ैराबादी

मिरे सय्याद को बा-वस्फ़-ए-असीरी है ये ख़ौफ़

मैं क़फ़स में भी बना लूँगा गुलिस्ताँ कोई

हयात वारसी

इक चेहरे से प्यार करूँ मैं इक से ख़ौफ़ लगे है मुझ को

इक चेहरा इक आईना है इक चेहरा पत्थर लगता है

वासिफ़ अली वासिफ़

नशात-ए-विसाल हिज्र का ग़म ख़याल-ए-बहार ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ

सक़र का ख़तर है शौक़-ए-इरम सितम से हज़र करम से ग़रज़

बेदम शाह वारसी

बंदा क़ुसूर-वार है ख़ालिक़ मिरा ग़फ़ूर

अब ख़ौफ़ दल में भला हम कभू करें

अता हुसैन फ़ानी

बादा-ख़्वार तुम को क्या ख़ुर्शीद-ए-महशर का है ख़ौफ़

छा रहा है अब्र-ए-रहमत शामियाने की तरह

अमीर मीनाई

‘उलवी’ को ज़े बस था ख़ौफ़-ए-ग़िना कहा यार ने बा-हमा लुत्फ़-ओ-अ’ता

क्यों डरता है आग़ोश में तू और नहीं मैं और नहीं

इम्दाद अ'ली उ'ल्वी

आतिश-ए-दोज़ख़ का हम तर-दामनों को क्या है ख़ौफ़

वा’इज़ा जलती नहीं है हैज़म-ए-तर आग में

शाह नसीर

जो मरने से मूए पहले उन्हें क्या ख़ौफ़ दोज़ख़ का

दिल अपना नार-ए-हिजरत से जला ले जिस का जी चाहे

किशन सिंह आरिफ़

इरादा आज बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर है उन की महफ़िल का

मोहब्बत में कोई देखे तो ये दीवाना-पन अपना

हसरत मोहानी

गुलज़ार में दुनिया के हूँ जो नख़्ल-ए-भुचम्पा

ख़्वाहिश समर की मियाँ ख़ौफ़ क़हर का

ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़

ख़िज़ाँ का ख़ौफ़ था जिन को चमन में

उन्हीं फूलों के चेहरे ज़र्द निकले

पुरनम इलाहाबादी

आ'शिक़-ए-जाँ-निसार को ख़ौफ़ नहीं है मर्ग का

तेरी तरफ़ से सनम जौर-ओ-जफ़ा जो हो सो हो

मीर मोहम्मद बेदार

हो गया दाम-ए-ख़ौफ़-ए-ग़म से रिहा

जो तुम्हारा असीर-ए-गेसू है

आसी गाज़ीपुरी

दिल-ए-बे-ताब सँभल ख़ौफ़ है रुस्वाई का

हाल देखे कोई मुज़्तरिबाना तेरा

कैफ़ी हैदराबादी

है क्या ख़ौफ़ 'आरिफ़' को महशर के दिन

वकालत पे जब पीर मुख़्तार हो

किशन सिंह आरिफ़

नहीं आती क़ज़ा मक़्तल में ख़ौफ़-ए-तेग़-ए-क़ातिल से

इलाही ख़ैर क्यूँ-कर दम तन-ए-बिस्मिल से निकलेगा

हशम लखनवी

जोश-ए-जुनूँ में दाग़-ए-जिगर मेरे भरे

गुलचीं हमारे बाग़ को ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ नहीं

कौसर ख़ैराबादी

हुजूम-ए-दाग़-ए-मोहब्बत में लाला-ज़ार हूँ मैं

ख़िज़ां का ख़ौफ़ नहीं जिसको वो बहार हूँ मैं

नजीब लखनवी

ख़ूब-रू ख़ुद मिले जब फिर किसी का ख़ौफ़ क्या

ये वो जादू है जिसे तस्ख़ीर की हाजत नहीं

किशन सिंह आरिफ़

गूढ़ ज़ुल्मात अंधेर ग़ुबाराँ राह ने ख़ौफ़ ख़तर दे हू

आब हयात मुनव्वर चश्मे साए ज़ुलफ़ अंबर दे हू

सुल्तान बाहू

कूचा-ए-जानाँ में जाना है मुहाल

ख़ौफ़ है उस संग-दिल खूँ-ख़्वार से

किशन सिंह आरिफ़

ख़ौफ़-ए-बदनामी से तुझ पास आए वर्ना

हम कई बार सुन यार उठे और बैठे

अ’ब्दुल रहमान एहसान देहलवी

हैरान है तेरे मज़हब से सब गबरू मुसलमाँ 'अहक़र'

ये उस की गली का रस्ता है पुर-ख़ौफ़ भी है पुर-ख़ार भी

अहक़र बिहारी

जान का कुछ ख़ौफ़ जाँबाज़ान-ए-उल्फ़त को नहीं

आप दिखलाते हैं क्यों तेग़-ए-सफ़ाहानी मुझे

सादिक़ लखनवी

उस के कूचे में कहाँ कशमकश-ए-बीम-ओ-रजा

ख़ौफ़-ए-दोज़ख़ भी नहीं ख़्वाहिश-ए-जन्नत भी

आसी गाज़ीपुरी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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