Sufinama

गर्मी पर अशआर

बयाँ सुन कर मिरा जलते हैं शाहिद

ज़बाँ में मेरी गर्मी है बला की

राक़िम देहलवी

मता-ए-गर्मी-ए-बाज़ार-ए-जाँ है

वो बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-हासिल हमारा

आसी गाज़ीपुरी

अगर ये सर्द-मेहरी तुज को आसाइश सिखलाती

तो क्यूँकर आफ़्ताब-ए-हुस्न की गर्मी में नींद आती

मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ

दिल बुझा जाए है अग़्यार की शोरिश पे मिरा

सर्द करती है तिरी गर्मी-ए-बाज़ार मुझे

एहसनुल्लाह ख़ाँ बयान

तू और ज़रा मोहकम कर ले पर्दों की मुकम्मल बंदिश को

दोस्त नज़र की गर्मी को हम आज शरारा करते हैं

अज़ीज़ वारसी देहलवी

शम-ए-दिल-अफ़रोज़ शब-तार-मोहब्बत

तुझ से ही है ये गर्मी-ए-बाज़ार-ए-मोहब्बत

मीर मोहम्मद बेदार

हुई उस में इक गर्मी-ए-शौक़ पैदा

पड़ी जो नज़र उस रुख़-ए-आतिशीं पर

हसरत मोहानी

वो तूर वाली तिरी तजल्ली ग़ज़ब की गर्मी दिखा रही है

वहाँ तो पत्थर जला दिए थे यहाँ कलेजा जला रही है

मुज़्तर ख़ैराबादी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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