Sufinama
noImage

महात्मा मनोहरदास जी

महात्मा मनोहरदास जी के दोहे

द्रष्टा एक स्वरूप है, जीवेश्वर नहिं भेद।।

सो स्वरूप उर वंदि कै, विघ्न सर्व तजि खेद।।

गुरु पूर्ण अद्वैत है, द्वैत भेद नहिं ताहि।।

ताको करै प्रणाम, विघ्न नाश सब जाहि।।

संसै रोग संसार सब, नासै करै विचार।।

कहै मनोहर निरंजनी, यह निहचै निरधार।।

तप्त नीर चूर्ण भषै, उदर रोग सब जाइ।।

त्यौं साधन सहित विचारतैं, संसार रोग नसाइ।।

भाषा ग्रन्थ यह वचनिका, औषध चूर्ण सोइ।।

ज्ञानचूर्ण यह वचनिका, नामजु या को होइ।।

जीवेश्वर द्वै जगत मंहि, प्रगट कहैं सब कोई।।

वाह्य दिष्टि विवेक बिन, अन्तर्दिष्टि होई।।

कर्म सहित पुनि रहित है, सहित कर्म कह्यौ जीव।।

संसारी तातै भयो, रहित भयो सोई सींव।।

जीवेश्वर चैतन्य महि, कहिये है द्वै नाम।।

सर्वज्ञता अल्पज्ञ पुनि, संसारी सुखधाम।।

रवि गुरु द्वै सम तुल्य ज्यौं, तम अज्ञान करै दूर।।

जग उरमें प्रकाश करि, वन्दन को निज मूर।।

Recitation

बोलिए