Sufinama
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बरकतुल्लाह पेमी

1660 - 1729 | एटा, भारत

ख़ानक़ाह बरकातिया, मारहरा के बानी और मा’रूफ़ सूफ़ी

ख़ानक़ाह बरकातिया, मारहरा के बानी और मा’रूफ़ सूफ़ी

बरकतुल्लाह पेमी के दोहे

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तू मैं मैं तू एक हैं और दूजा कोय

मैं तो कहना जब छुटे वही वही सब होय

लिखें सबई लीखें नहीं मोहन प्रान सहाय

अलख लखै कउ लाख मूँ लिखा लखा तो काय

मन भटको चहुँ ओर तें आयो सरन तिहार

करुना कर के नाँव की करिए लाज मुरार

बीज बिरछ नहिं दोय हैं रूई चीर नहीं दोय

दध तरंग नहीं दोय हैं बूझो ज्ञानी लोय

मन जोगी तन कि मढ़ी सेत गूदरि ध्यान

नैनाँ जल बिरह धोएँ बिच्छा दरसन जान

मैंय्यहदिल्लाहो कों फ़ला-मुज़िल्ला-लहु कोय

निहचयँ के मन जानियो और दूजा कोय

सत जो जाए तो रहै क्या नीती गए सब जाए

लजिया बिना निलज्ज है बिन बिद्या अघाय

तुम जानी कछु 'पेम' मग बातन बातन जाय

पंथ मीत को कठिन है खेलो फाग बनाय

तन निर्मल कर बूझिए मन की अधिकै सीख

वहोवा मअ'कुम के भेद सों फिर फिर आपै देख

दधि-मन देत तरंग नित रंग रंग बिस्तार

कोउ तरंग मोती सहित काहु संग सेवार

योमिनूना बिल-ग़ैब कूँ आँख मूँद मन पील

सीखो गुरु सों ये जुगत आँख-मिचौनी खेल

अलख लखे जब आप कों लखे राखे मोह

लिखें पढ़ें कछु होत नहिं कहे तो लिख देवँ तोह

'पेमी' तन के नगर में जो मन पहरा देय

सोवे सदा अनंद सों चोर माया होय

बे-हद की हद मीम सों भई 'पेम' मद होय

बिला मीम अहमद कहै काकी हद होय

अबि-बकर और उमर पुन उस्मान अ'ली बखान

सत नेति और लाज अती बिद्या बूझ सुजान

मैय्युज़-लील्हो जु हर भयो पाप की मोट

फला-हादीया-लहु होय नहिं करो जतन किन कोट

गत तिहारी अधिक है मो मत सके गाए

ज्यों कतान सम चंद के टूक-टूक हो जाए

'पेमी' हिन्दू तुरक मों हर-रंग रहो समाय

देवल और मसीत मों दीप एक हीं भाय

नई रीति या पीत की पहलें सब सुख देह

पाछैं दुख की जील में डार करै तन खेह

पाँचौ पाँचौ पाँचियो नबी चार हू नांह

बाचोगे दुख पाप तें नाँचो बैकुंठ माँह

औरंगजेब के राज में भई ग्रंथ की आस

'पेमी' नाँव बिचार के धरा पेम-प्रकाश

मूरख लोग बूझि हैं धरम-करम की छीन

एक तो चाहैं अधिक कै इक तो देखें हीन

मुख सुख को ससि निरमलो होत पाप तम दूर

ध्यान धरें अति पाइए 'पेमी' मन की मूर

हरिजन हरि के पंथ जिय ऐसें देत मिलोय

निधरक लोभै छाड़ के जम-सुध ही ना होय

तोहिं तोहिं तब कहै हौंहीं हौंहीं जाय

जल गंगा में मिल गयो सिर की गई बलाय

तालकल्ल दोउ कहै ब्योरा बूझो कोय

इक बक़ा एक फ़ना है 'पेम' पुराने लोय

हम बासी वा देस के जहाँ पाप पुन्न

बिदिसा दिसा होत है 'पेमी' सनै सुन्न

पार कहैं तै वार हैं वार कहैं नहीं पार

या मग आर-न-पार है तन-मन डारो वार

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