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अ’ब्दुल रहमान एहसान देहलवी

1769 - 1851 | दिल्ली, भारत

मुग़ल बादशाह शाह आ’लम सानी के उस्ताद

मुग़ल बादशाह शाह आ’लम सानी के उस्ताद

अ’ब्दुल रहमान एहसान देहलवी के अशआर

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वही इंसान है 'एहसाँ' कि जिसे इल्म है कुछ

हक़ ये है बाप से अफ़्ज़ूँ रहे उस्ताद का हक़

वो बहर-ए-हुस्न शायद बाग़ में आवेगा 'एहसाँ'

कि फ़व्वारा ख़ुशी से आज दो दो गज़ उछलता है

वही इंसान है 'एहसाँ' कि जिसे इल्म है कुछ

हक़ ये है बाप से अफ़्ज़ूँ रहे उस्ताद का हक़

बे-ख़ुदी गर हो ख़ुद तो के मिले

ख़ुदा बे-ख़ुदी अजब शय है

महफ़िल इ’श्क़ में जो यार उठे और बैठे

है वो मलका कि सुबुक-बार उठे और बैठे

नासेहो गर सुनूँ मैं मिरी क़िस्मत का क़ुसूर

तुम ने इरशाद किया जो कि है इरशाद का हक़

किसी का साथ सोना याद आता है तो रोता हूँ

मिरे अश्कों की शिद्दत से सदा गुल-तकिया गलता है

वही इंसान है 'एहसाँ' कि जिसे इ’ल्म है कुछ

हक़ ये है बाप से अफ़्ज़ूँ रहे उस्ताद का हक़

ग़म मुझे याँ अहल-ए-तअय्युश ने है घेरा

इस भीड़ में तू मिरे ग़म-ख़्वार कहाँ है

जला हूँ आतिश-ए-फ़ुर्क़त से मैं शोअ'ला-रू याँ तक

चराग़-ए-ख़ाना मुझ को देख कर हर शाम जलता है

बे-ख़ुदी गर हो ख़ुद तो के मिले

ख़ुदा बे-ख़ुदी अजब शय है

नौ ख़त तो हज़ारों हैं गुलिस्तान-ए-जहाँ में

है साफ़ तो यूँ तुझ सा नुमूदार कहाँ है

नहीं सुनता नहीं आता नहीं बस मेरा चलता है

निकल जान तू ही वो नहीं घर से निकलता है

सदा ही मेरी क़िस्मत जूँ सदा-ए-हल्क़ा-ए-दर है

अगर मैं घर में जाता हूँ तो वो बाहर निकलता है

आप की मज्लिस-ए-आ’ली में अ’लर्रग़्म रक़ीब

ब-इजाज़त ये गुनहगार उठे और बैठे

ख़ौफ़-ए-बदनामी से तुझ पास आए वर्ना

हम कई बार सुन यार उठे और बैठे

जिन से कि हो मरबूत वही तुम को है मैमून

इंसान की सोहबत तुम्हें दरकार कहाँ है

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