ब-कू-ए-मय-कद: हर सालिके कि रह दानिस्त
ब-कू-ए-मय-कद: हर सालिके कि रह दानिस्त
दरे दिगर ज़दन अंदेश:-ए-तबह दानिस्त
जिस सालिक ने शराब-ख़ाना के कूचे का रास्ता जान लिया
दूसरा दरवाज़ा खटखटाना उसने बुरा जाना
बर आस्तान:-ए-मय-ख़ान: हर कि याफ़्त रहे
ज़े-फ़ैज़-ए-जाम-ए-मय असरार-ए-ख़ानक़ः दानिस्त
जिसको मय-ख़ाना की चौखट का रास्ता मिल गया
उसने शराब के जाम के फ़ैज़ से ख़ानक़ाह के राज़ को समझ लिया
ज़माना अफ़सर-ए-रिंदी न-दाद जुज़ ब-कसे
कि सरफ़राज़ी-ए-आ'लम दरी कुलह दानिस्त
ज़माना ने रिन्दी का ताज उसी को दिया है
जिसने जहाँ की कामयाबी उसी टोपी मैं समझी है
हर आँ कि राज़-ए-दो-आलम ज़े-ख़त-ए-साक़ी ख़्वांद
रुमूज़-ए-जाम-ए-जम अज़ नक्श-ए-ख़ाक-ए-रह दानिस्त
जिसने साक़ी के ख़त से दोनों जहाँ के राज़ पढ़ लिए
उस जाम-ए-जमशेद के रमूज़ रास्ता की ख़ाक से समझ लिए हैं
वराए ताअ'त-ए-दीवानगाँ ज़े-मा म-तलब
कि शैख़ मज़्हब-ए-मा आक़िली गुनह दानिस्त
दीवानों की सी फ़र्मांबर्दारी के सिवा हम से कुछ न चाह
इसलिए कि हमारे मज़हब के शैख़ ने अ’क्लमंदी को गुनाह समझा है
दिलम ज़े-नरगिस-ए-साक़ी अम्मा न-ख्वास्त ब-जाँ
चरा कि शेव:-ए-आँ-तर्क-ए-दिल-सियह दानिस्त
मेरे दिल ने साक़ी की नर्गिस से जान की अमाँ नहीं चाही
इसलिए कि वो सियाह दिल मा’शूक़ के शेवा को समझ गया
ज़े-जौर-ए-कौकब-ए-ताले-ए-सहर-गहाँ चश्मम
चुनाँ गिरीस्त कि नाहीद दीद-ओ-मह दानिस्त
सुब्ह के वक़्त नसीबा के सितारे के ज़ुल्म से मेरी आँखें
इस क़द्र रोईं कि ख़ुरशीद ने देखा और चाँद ने जाना
ख़ुशाँ नज़र कि लब-ए-जाम-ओ-रू-ए-साक़ी रा
हिलाल-ए-यक-शबेह-ओ-माह-ए-चार-दह दानिस्त
वो निगाह किस क़द्र ख़ुश-नसीब है जिसने जाम के लब और साक़ी के
चेहरे को पहली रात का चाँद और चौदहवीं रात का चाँद समझा
बुलंद-मर्तब: शाहे कि न रवाक़-ए-सिपहर
नमून:-ए-ज़ख़्म-ए-ताक़-ए-बारगह दानिस्त
वो बुलंद रुत्बा बादशाह जिसने आसमान के नौ पर्दों को
दरबार के ताक़ के झुकाव का नमूना समझा
हदीस-ए-'हाफिज़'-ओ-साग़र कि मी-ज़नद पिन्हाँ
चे जा-ए-मोहतसिब-ओ-शहन: पादशह दानिस्त
‘हाफ़िज़’ की बात और छुपा कर साग़र चढ़ाने को
चेजाए कि मुहतसिब और सिपाही जान गया
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