आस्तीं बर रुख़ कशीदी हम-चु मक्कार आमदी
आस्तीं बर रुख़ कशीदी हम-चु मक्कार आमदी
बा-ख़ुदी ख़ुद दर तमाशा सू-ए-बाज़ार आमदी
(ऐ महबूब-ए-अज़ल) तूने अपने चेहरे पर आस्तीन का पर्दा डाला और हीला-गरों की तरह ज़ाहिर हुआ।
अपनी ज़ात-ओ-एतिबार के साथ जल्वा दिखाने के लिए ख़ुद बाज़ार की तरफ़ आया।
ख़्वेश्तन रा जल्वः कर्दी अंदरीं आईनः-हा
आईनः इस्म-ए-निहादी ख़ुद ब-इज़्हार आमदी
कायनात के आइनों के अंदर ख़ुद जल्वा-अफ़रोज़ हुआ,
आईना रख दिया जबकि ख़ुद इज़हार को आया।
दर बहाराँ गुल शुदी दर सहन-ए-गुलज़ार आमदी
बा'द अज़ाँ बुलबुल शुदी बा-नालः-ए-ज़ार आमदी
मौसम-ए-बहार में फूलों का रूप धार कर ख़ुद चमन की ज़ीनत हुआ,
और फिर बुलबुल बन कर ख़ुद अपने हुस्न का आशिक़ हो कर नाला-ए-आशिक़ाना बुलंद किया।
शोर-ए-मंसूर अज़ कुजा-ओ-दार-ए-मंसूर अज़ कुजा
ख़ुद ज़दी बांग-ए-अनल-हक़ ख़ुद सर-ए-दार आमदी
मंसूर का दावा किया और सूली क्या?
ख़ुद ही नारा-ए-अना-अल-हक़ बुलंद किया और ख़ुद ज़ीनत-ए-दार हुआ।
गुफ़्त ‘क़ुद्दूस’-ए-फ़क़ीरे दर फ़ना-ओ-दर बक़ा
ख़ुद-ब-ख़ुद आज़ाद बूदी ख़ुद गिरफ़्तार आमदी
फ़ना और बक़ा के मरहले के एक फ़क़ीर क़ुद्दूस ने कहा कि
(ऐ महबूब-ए-लम-यज़ल) तू ख़ुद अपने आप आज़ाद था और ख़ुद अपना गिरफ़्तार हुआ।
- पुस्तक : नग़मातुल उंस फ़ी मजालिसिल क़ुदस (पृष्ठ 303)
- रचनाकार :शाह हिलाल अहमद क़ादरी
- प्रकाशन : दारुल एशा'अत ख़ानक़ाह मुजीबिया (2016)
- संस्करण : First
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