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मैं ने पूछा हुस्न से कि देखा है कहीं

शब्बीर साजिद मेहरवी

मैं ने पूछा हुस्न से कि देखा है कहीं

शब्बीर साजिद मेहरवी

MORE BYशब्बीर साजिद मेहरवी

    मैं ने पूछा हुस्न से कि देखा है कहीं

    मेरी सरकार सा हसीं

    हुस्न ने कहा दिलबरी की क़सम नहीं नहीं नहीं

    वलियों से जवाब उन का पूछा नबियों में मिसाल उन की ढूँडी

    क़ुदसियों की अंजुमन में मैं ने ’अज़्मत-ए-जमाल उन की ढूँडी

    पूछा जिब्रईल से कि देखा है कहीं ऐसा शाह-ए-नाज़नीं

    बोला जिब्रईल ज़ात-ए-हक़ की क़सम नहीं नहीं नहीं

    यूँ है काइनात में मदीना जैसे हो अँगूठी में नगीना

    उस गली के ज़र्रे वो हैं

    जिन से ज़ौ-फ़िशाँ है मेहर-ओ-माह का सीना

    मैं ने पूछा 'अर्श से कि देखी है कहीं मदीने सी ज़मीं

    'अर्श ने कहा बरतरी की क़सम नहीं नहीं नहीं

    ला-मकाँ के मकीन हैं जो इक चटाई उन का है बिछौना

    दो जहाँ के ताजदार हो कर फिर भी फ़र्श-ए-ख़ाक पर है सोना

    पूछा फ़क़्र से कि देखा ऐसा शह-ए-दीं जो हो बोरिया-नशीं

    फ़क़्र ने कहा सादगी की क़सम नहीं नहीं नहीं

    आदमी को आदमी बनाया फ़ल्सफ़ा हयात का सिखाया

    डूबते सफ़ीना जहाँ को साहिल-ए-मुराद पर लगाया

    मैं ने पूछा ख़िज़्र से फ़लक हो या ज़मीं ऐसा हादी है कहीं

    ख़िज़्र ने कहा राहबरी की क़सम नहीं नहीं नहीं

    ज़ुल्फ़ें हैं मेरे हुज़ूर की या रहमतों की सुरमई घटाएँ

    गेसुओं के पेच कह रहे हैं हम ही मुजरिमों की हैं पनाहें

    मैं ने पूछा रात से कि देखी हैं कहीं ऐसी ज़ुल्फ़-ए-'अम्बरीं

    रात ने कहा ज़ुल्फ़ ही की क़सम नहीं नहीं नहीं

    लब मेरे हुज़ूर के हैं ऐसे भीक जिन की ला'ल हैं यमन के

    सुर्ख़ी और ताज़गी पूछो पानी पानी फूल हैं चमन के

    मैं ने पूछा फूल से बाग़ के मकीं देखे ऐसे लब कहीं

    फूल ने कहा पंखुड़ी की क़सम नहीं नहीं नहीं

    अबरू हैं कि मंज़िल-ए-दना है चेहरा है कि शर्ह-ए-वज़्ज़ुहा है

    हुस्न है वो शाह-ए-दिलबराँ का आप जिस पे ज़ात-ए-हक़ फ़िदा है

    मैं ने पूछा 'इश्क़ से कि देखा है कहीं ऐसा हुस्न-ए-दिल-नशीं

    'इश्क़ ने कहा 'आशिक़ी की क़सम नहीं नहीं नहीं

    ताबिश-ए-रुख़-ए-हुज़ूर है वो मेहर-ओ-माह जिस के हैं भिकारी

    दिन को आफ़्ताब-ए-रुख़ पे सदक़े रात को क़मर है उस पे वारी

    मैं ने पूछा नूर से कि देखा है कहीं ऐसा 'आरिज़-ए-मुबीं

    तो नूर ने कहा रौशनी की क़सम नहीं नहीं नहीं

    क़ामत सलात की सदाएँ क़ामत हुज़ूर की हैं धूमें

    क़द वो है कि शाख़-हा-ए-तूबा ज़िक्र जिस का छेड़ कर के झूमें

    मैं ने पूछा सर्व से कि देखी है कहीं ऐसी क़ामत हसीं

    तो सर्व ने कहा सरवरी की क़सम नहीं नहीं नहीं

    कुशा कमाल-ए-मुस्तफ़ाई जल्वा-गर है ज़ात-ए-किब्रियाई

    वो दर-ए-हुज़ूर है 'साजिद' सज्दा-रेज़ है जहाँ ख़ुदाई

    पूछा मैं ने जब कि तू ने देखा जबीं ऐसा आस्ताँ कहीं

    बोली यूँ जबीन-ए-बंदगी की क़सम नहीं नहीं नहीं

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