एक शख़्स का हिरन को गधों के अस्तबल में बंद कर देना - दफ़्तर-ए-पंजुम
रोचक तथ्य
अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब
एक शिकारी ने हिरन पकड़ा और अस्तबल में बांध दिया। इस अस्तबल में गधे ही गधे भरे हुए थे। हिरन मारे घबराहट के हर तरफ़ दौड़ता और शिकारी रात-भर गधों के आगे घास डालता रहा। मारे भूक और हिर्स के हर गधा वो घास इस मज़े से खा रहा था जैसे कोई गन्ना चूसता है। वो हिरन कभी तो इधर उधर भागता था और कभी धुएं और गर्द-ओ-ग़ुबार से घबरा के मुँह फेर लेता था। जिस किसी को अपने ख़िलाफ़-ए-तब्अ' ग़ैर जिन्स के साथ यकजा करते हैं तो वो उसे मौत की सज़ा के बराबर जानता है। चुनांचे हज़रत-ए-सुलैमान ने फ़रमाया कि अगर वो हुदहुद गैर-हाज़िरी का मा’क़ूल उ’ज़्र पेश ना करेगा तो उस को क़त्ल कर दूँगा या उसे सख़्त सज़ा दूँगा जिसकी कोई हद ना होगी। वो कौन सा अ’ज़ाब है? वो अपने ग़ैर जिन्स के साथ हम-क़फ़स होता है। ऐ फ़र्ज़ंद तू भी इस बदन में अ’ज़ाब पा रहा है। तेरी रूह का परिंदा दूसरी जिन्स के साथ एक जगह क़ैद कर दिया गया है।
अल-ग़रज़ कई दिन तक वो ख़ुशबूदार नाफ़े का हिरन गधों के अस्तबल में सज़ा भुगतता रहा। ऐसा बे-ताब रहा जैसे मछली ख़ुश्की पर तड़पती है गोया एक ही डिब्बे में मेंगनी और मुश्क अ’ज़ाब पा रहे थे।एक गधे ने कहा कि ओहो अरे जंगली तू बादशाहों और अमीरों का दिमाग़ रखता है। बस निचला बैठ। दूसरे गधे ने कहा कि दुनिया के ज्वार-भाटे में से ये बड़ा आब-दार मोती निकाल लाया है। ऐसी अनमोल चीज़ को सस्ता कैसे बेचे। तीसरे गधे ने आवाज़ कसा कि जब तुम ऐसे नाज़ुक बदन हो तो जाओ तख़्त-ए-शाही पर तकिया लगा कर बैठो । चौथे गधे को खाते खाते बद-हज़मी हुई तो घास खानी छोड़ दी और अपनी घास पर हिरन को दा’वत देने लगा। हिरन सर हिला कर जवाब दिया कि नहीं मैं नहीं खाता। मैं तो बहुत कमज़ोर हो रहा हूँ। उसने कहा हाँ हाँ मुझे मा’लूम है कि तुम ज़रा शान दिखा रहे हो या अपनी हवा बाँधने की ख़ातिर खाने स परहेज़ कर रहे हो। हिरन ने गधे से कहा ये खा, ये तो तेरा ही है क्योंकि इस से तेरे अज्ज़ा-ए-बदन ज़िंदा और ताज़ा हैं मगर मैं तो सर-सब्ज़-ओ-शादाब सब्ज़ा-ज़ारों का शैदाई हूँ। बड़े बड़े दरख़्तों के साए और ख़ूबसूरत बाग़ों में मैंने बसेरा किया है।
अगर क़ज़ा-ए-इलाही ने मुसीबत में मुब्तला कर दिया तो भी शरीफ़ तबिअ’त की खू ख़सलत दफ़्अ’तन क्यूँ-कर बदल जाएगी। अब भिक-मंगा हो गया हूँ तो क्या हुआ? भिकमंगी सूरत तो नहीं है। और अगर मेरा लिबास पुराना हो जाए तो क्या मैं तो नया हूँ। मैं तो वो हूँ कि मैंने सुंबुल-ओ-लाला को बड़े ही नाज़ नख़रों से आहिस्ता-आहिस्ता खाया है। मेरा नाफ़ा ख़ुद शाहिद है कि उस की ख़ुशबू ऊ'द अं'बर को दूर भगाती है। लेकिन उस को वही सूँघता है जिसके नाक हो लीद को पूजने वाले गधे पर इस की ख़ुशबू हराम है। गधे जब चलते हैं तो रास्ते में एक एक दूसरे की पेशाब-गाह को सूँघा करता है मैं ऐसों को मुश्क क्यूँ-कर सुंघाऊं।
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 167)
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
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