तहज़ीब-ए-इमारत रोज़ नए अंदाज़-ए-शबिस्ताँ बदलेगी
तहज़ीब-ए-इमारत रोज़ नए अंदाज़-ए-शबिस्ताँ बदलेगी
ऐ दोस्त मगर शायद ये कभी दुनिया-ए-ग़रीबाँ बदलेगी
तरमीम-ओ-तग़य्युर के फ़ित्ने उठते हैं फ़क़त ऐवानों में
बदली है न हरगिज़ कैफ़ीयत काशाना-ए-वीराँ बदलेगी
उम्मीद-ए-बहाराँ से पहले ये बात हमें मा'लूम न थी
मौसम की तरह हर जुम्बिश पर तक़्दीर-ए-गुलिस्ताँ बदलेगी
दिखलाएगा जज़्ब-ए-उल्फ़त भी अंदाज़-ए-ज़माना-साज़ी के
अब मस्लहतन फ़ितरत अपनी आह-ए-दिल-ए-सोज़ाँ बदलेगी
मजबूर की आहों का तूफ़ाँ इक रोज़ क़यामत लाएगा
ख़ुद मश्क़-ए-सितम से तंग आके रुख़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ बदलेगा
अल्लाह तलब की राहों में तस्कीन की मंज़िल भी है कहीं
आख़िर ये कहाँ तक वहशत-ए-दिल सहरा-ओ-बयाबाँ बदलेगी
मरहम से नमक-दाँ तक तो हमें पहुँचाया सुकून-ए-राहत ने
ऐ चारा-गरो अब कौन-सा रुख़ ये काविश-ए-दरमाँ बदलेगी
एहसान-ए-सितम के अफ़्साने दुनिया में रहेंगे अपनी जगह
'उन्वान की हद तक रूदाद-ए-हालात-ए-परेशाँ बदलेगी
सोचो तो 'नियाज़'-ए-ज़ार ज़रा उस वक़्त का 'आलम क्या होगा
ख़ुनुकी-ए-सुकून-ए-यास में जब ये सोज़िश-ए-पिन्हाँ बदलेगी
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