मेरे क़ाबू से शब-ए-ग़म दिल ही क्या जाता रहा
मेरे क़ाबू से शब-ए-ग़म-ए-दिल ही क्या जाता रहा
आरज़ू-ए-वस्ल का भी हौसला जाता रहा
आँख मिलते ही दिल दर्द आश्ना जाता रहा
क्या कहें क्या मिल गया आज और क्या जाता रहा
प्यार की आँखों से उन का देखना जाता रहा
वो तमन्ना रह गई वो आसरा जाता रहा
आज उन को वा’दा-ए-फ़र्दा से भी इंकार है
वाए नाकामी कि ये भी आसरा जाता रहा
लुत्फ़ हो जब दिल के खो जाने का मैं शिकवा करूँ
तुम कहो हम क्या करें जाता रहा जाता रहा
बस बहुत छेड़ो न मुझ को मुद्द'ई के सामने
चाहते हो तुम कि मैं कह दूँ गिला जाता रहा
वस्ल का वा'दा नहीं करते मगर हँसते तो हैं
ये भी क्या कम है कि अंदाज़ हया जाता रहा
हाथ रख कर मेरे सीने पर ज़रा तुम देख लो
कौन कहता है कि दर्द ला-दवा जाता रहा
सुन लिया है दावर-ए-महशर को जब से बे-नियाज़
कहते हैं अंदेशा-ए-रोज़-ए-जज़ा जाता रहा
जुस्तुजू-ए-दिल में मुझ को देख कर कहते हैं वो
कौन सी शय ढूँढते फिरते हो क्या जाता रहा
रू-ब-रू मेरे भरी महफ़िल में हम-ज़ानू हैं ग़ैर
उन से मिल कर बैठने का अब मज़ा जाता रहा
वस्ल की शब बोसों की दौलत बचाई रूठ कर
माल मेरे हाथ एक आया हुआ जाता रहा
उन्स करता ख़ाना-ए-दिल से मिरे क्या दर्द-ए-'इश्क़
चार दिन टहला फिरा बैठा उठा जाता रहा
उस को पर्दे में बिठाए रखती है आँखों की शर्म
यार की उठती जवानी का मज़ा जाता रहा
रोक देखे दिल मिरा 'एहसान' तीर-ए-यार को
रह गया तू रह गया जाता रहा जाता रहा
- पुस्तक : Diwan-e-Ahsaan (पृष्ठ 36)
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