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कलाम
कहाँ इंसाँ कहाँ अक़्ल-ओ-ख़िरद की बेड़ियाँ तौब:ज़रा भी अक़्ल हो तो आदमी दीवान: हो जाए
ज़हीन शाह ताजी
कलाम
फोल न काग़ज़ बदियाँ वाले दर तों धक न मैनूँ हू ।मैं विच ऐड गुनाह न हुंदे तूँ बख़शेंदों कैनूँ हू ।
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
इश्क़ दी गल्ल अवल्ली जेहड़ा शरआ थीं दूर हटावे हूक़ाज़ी छोड़ कज़ाई जाण जद इश्क़ तमाँचा लावे हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
आशिक़ हो ते इश्क़ कमा दिल रक्खीं वांग पहाड़ाँ हूसै सै बदियाँ लक्ख उलाहमें, जाणीं बाग़-बहाराँ हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
क्या शोर-ए-क़यामत हो अजब फ़ित्ना हो बरपाजब यार खड़ा हो मिरे बिस्तर के बराबर
शाह तुराब अली क़लंदर काकोरवी
कलाम
न सोहणी न दौलत पल्ले क्यूँकर यार मनावाँ हूदुख हमेशा इह रहसि 'बाहू' रोंदी ही मर जावां हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
हर-दम याद रखें हर वेले सोहणा उठांदा बहान्दा हूआपे समझ समझेंदा 'बाहू' आप आपे बिन जान्दा हू