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कलाम
वादियाँ सरशार-ए-मस्ती मय-कद: बर-दोश होंज़र्रा ज़र्रा हो अगर जन्नत-ब-दामाँ कुछ नहीं
ज़हीन शाह ताजी
कलाम
न मैं आलिम न मैं फ़ाज़िल न मुफ़्ती न क़ाज़ी हूना दिल मेरा दोज़ख़ ते ना शौक़ बहिश्ती राज़ी हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
फ़ौज थी वानेर की होर भीड़ थी लंगूर कीमिल के सब लड़ते थे सुब्ह-ओ-शाम सीता वास्ते
शाह तुराब अली दकनी
कलाम
बहारें फ़र्श हो हो कर बिछी जाती हैं गुलशन मेंउरूस-ए-सुबह-ए-गुल हो कर जवानी मुस्कुराई है
ज़हीन शाह ताजी
कलाम
अक़्ल के मदरसे से उठ इश्क़ के मय-कदा में आजाम-ए-फ़ना-ओ-बे-ख़ुदी अब तो पिया जो हो सो हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
कलाम
अल्लाह पढ़यों हाफ़िज़ होयों न गया हिजाबों पर्द: हूपढ़ पढ़ आलिम फ़ाज़िल होयों तालिब होयों ज़र्दा हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
अल्लाह पढ़यों हाफ़िज़ होयों न गया हिजाबों पर्दा हूपढ़ पढ़ आलिम फ़ाज़िल होयों तालिब होयों ज़र दा हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
फ़ना बुलंदशहरी
कलाम
चिल्हे, चलिये, जंगल भौणा, इस गल्ल थीं न पक्के हूसभ मतलब हो जांदे हासिल जद पीर नज़र इक तक्के हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
एह तन रब्ब सच्चे दा हुजरा खिड़ियाँ बाग़-बहाराँ हूविच्चे कूज़े विच मुसल्ले विच सज्दे दियाँ ठाराँ हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
बुलबुलों पर कर दे ऐ सय्याद एहसाँ छोड़ देफ़स्ल-ए-गुल आई है ज़ालिम छोड़ दे हाँ छोड़ दे
शाह तुराब अली क़लंदर काकोरवी
कलाम
एह तन रब्ब सच्चे दा हूजरा विच पा फ़क़ीरा झाती हून कर मिन्नत ख़्वाज ख़िज़र दी तैं अंदर आब हयाती हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
एह तन रब सच्चे दा हुजरा विच पा फ़कीराँ झाती हून कर मिन्नत ख़्वाजा ख़िज़र दी तैं अंदर आब हयाती हु