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कलाम
ख़ाम की जाणन सार फ़क़र दी महरम नहीं दिल दे हूआब मिट्टी थीं पैदा होए खामी भांडे गिल्ल दे हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
पढ़ पढ़ इलम हज़ार कताबाँ आलिम होए भारे हूहर्फ़ इक इश्क़ दा पढ़ न जाणन भुल्ले फिरन विचारे हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
आशिक़ राज़ माही दे कोलों, होण कदीं न वांदे हूनींद हराम तिन्हाँ ते जेहड़े ज़ाती इस्म कमांदे हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
दुनिया के नेक-ओ-बद से काम हम को 'नियाज़' कुछ नहींआप से गुज़र गया फिर उसे क्या जो हो सो हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
कलाम
ग़म-ओ-रंज-ओ-अलम का सामना 'औघट' न क्यूँ कर होकि राह-ए-इश्क़ में ये मरहले हैं पहली मंज़िल के
औघट शाह वारसी
कलाम
नाँ रब्ब अर्श मुअ'ल्ला उत्ते न रब्ब ख़ाने-काबे हूना रब्ब इलम किताबीं लब्भा, न रब्ब विच महाराबे हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
अहमद रज़ा ख़ाँ
कलाम
इस शान-ए-करम का क्या कहना दर पे जो सवाली आते हैंइक तिरी करीमी का सदक़ा वो मन की मुरादें पाते हैं
पुरनम इलाहाबादी
कलाम
एह दिल यार दे पिच्छे होवे ताँ यार वी कदी पछाणे हूआलिम छोड़ मसीताँ नट्ठे जद लग्गे दिल टिकाणे हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
न मैं आलिम न मैं फ़ाज़िल न मुफ़्ती न क़ाज़ी हूना दिल मेरा दोज़ख़ ते ना शौक़ बहिश्ती राज़ी हू