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कलाम
शौक़ दा दीवा बाल हनेरे मत लब्भे वस्त खड़ाती हूमरन थीं अग्गे मर रहे जिन्हाँ हक़ दी रमज़ पछाती हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
शौक़ दा देवा बाल अंधेरे मताँ लब्भे वस्त खड़ाती हूमरण थीं उगे मर रहे जिन्हाँ हक़ दी रम्ज़ पछाती हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
न रोता है न हँसता है न कुछ कहता न सुनता हैशराब-ए-इश्क़-ए-लैला से हुआ मदहोश यकबारा
शाह तुराब अली क़लंदर काकोरवी
कलाम
दीन और दुनिया के झगड़े से जो दी मुझ को नजातये बड़ा ऐ हज़रत-ए-इश्क़ आप ने एहसाँ किया
औघट शाह वारसी
कलाम
मर मर गए उश्शाक़ किसी से न हुआ नर्मख़ूबों का दिल सख़्त है पत्थर के बराबर
शाह तुराब अली क़लंदर काकोरवी
कलाम
वही पहला तबस्सुम आज तक है हुस्न के लब परवही पहली फ़ुग़ान-ए-इशक़ है जिस से जहाँ बदला
ज़हीन शाह ताजी
कलाम
तरी महफ़िल में तेरी ही मोहब्बत खींच लाई हैमिरा ज़ौक़-ए-नज़र तेरा ही शौक़-ए-ख़ुद-नुमाई है
ज़हीन शाह ताजी
कलाम
हाँ ये क़ल्ब-ए-हसन की धड़कन ये ग़ुंचों की चटकरंग-ओ-बू शौक़-ओ-हया का अहद-ओ-पैमाँ कुछ नहीं
ज़हीन शाह ताजी
कलाम
मार रावन कूँ होर सीता कूँ लाया घर को रामक्यूँ निकाला घर सुँ हो बदनाम सीता वास्ते
शाह तुराब अली दकनी
कलाम
मजाज़-ए-इश्क़ की दुश्वारियाँ शायद हक़ीक़ी हैंवो सुन सुन कर दुआएँ वर्ना क्यूँ आमीन फ़रमाएँ
ज़हीन शाह ताजी
कलाम
बुलबुलों पर कर दे ऐ सय्याद एहसाँ छोड़ देफ़स्ल-ए-गुल आई है ज़ालिम छोड़ दे हाँ छोड़ दे
शाह तुराब अली क़लंदर काकोरवी
कलाम
ग़म-ओ-रंज-ओ-अलम का सामना 'औघट' न क्यूँ कर होकि राह-ए-इश्क़ में ये मरहले हैं पहली मंज़िल के
औघट शाह वारसी
कलाम
मैं शम-ए-फ़रोज़ाँ हूँ मैं आतिश-ए-लर्ज़ां हूँमैं सोज़िश-ए-हिज्राँ हूँ मैं मंज़िल-ए-परवानः
वासिफ़ अली वासिफ़
कलाम
बिन जानी जान ख़राब बही बा-आतिश-ए-शौक़ कबाब बहीजों माही बहर-ए-बे-आब बही नित रुदन साथ बीमार होया