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कलाम
क्या शोर-ए-क़यामत हो अजब फ़ित्ना हो बरपाजब यार खड़ा हो मिरे बिस्तर के बराबर
शाह तुराब अली क़लंदर काकोरवी
कलाम
औघट शाह वारसी
कलाम
सुण फ़रियाद पीराँ दिआ पीरा अरज़ सुणी कन धर के हूबेड़ा अड़या विच कपराँ दे जिथ मच्छ न बैहन्दे डर के हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
इश्क़ असानूँ लिस्याँ जाता कर के आवे धाई हूजित वल वेखां इश्क़ दिसीवे ख़ाली जा न काई हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
हस्सण दे के रोवण लयोई दित्ता किस दिलासा हूउमर बंदे दी ऐवें गई ज्यों पाणी विच पतासा हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
हिज्र की जो मुसीबतें अर्ज़ कीं उस के सामनेनाज़-ओ-अदा से मुस्कुरा कहने लगा जो हो सो हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
कलाम
जो दम ग़ाफ़ल सो दम काफ़िर मुर्शिद इह फ़रमाया हूमुर्शिद सोहणी कीती 'बाहू' पल विच जा पहुँचाया हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
इश्क़ दी गल्ल अवल्ली जेहड़ा शरआ थीं दूर हटावे हूक़ाज़ी छोड़ कज़ाई जाण जद इश्क़ तमाँचा लावे हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
न सोहणी न दौलत पल्ले क्यूँकर यार मनावाँ हूदुख हमेशा इह रहसि 'बाहू' रोंदी ही मर जावां हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
तुझे मुश्किल-कुशा समझूँ न क्यूँ कर ऐ मेरे 'वारिस'तेरे हाथों से हल होते हैं उक़्दे मेरी मुश्किल के
औघट शाह वारसी
कलाम
तालिब बणके तालिब होवें ओस नूँ पया गावें हूलड़ सच्चे हादी दा फड़ के ओहो तूँ हो जावें हू
हज़रत सुल्तान बाहू
कलाम
दो-जहाँ जल्वा-ए-जानाँ के सिवा कुछ भी नहींहम ने कुछ और न देखा तो ख़ता कुछ भी नहीं''
ज़हीन शाह ताजी
कलाम
लिख हज़ार किताबाँ पढ़ के दानिश-मंद सदीवे हूनाम फ़क़ीर तहें दा 'बाहू' क़ब्र जिन्हाँ दी जीवे हू