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फ़ारसी कलाम
गह शैख़म अंदर ख़ानक़: गह रिंदम अंदर मय-कद:गह सुब्ह:-ओ-सज्जाद:अम गाहे मय-ओ-मीनास्तम
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
बैत
शाम-ए-ग़म गुज़री नुमायाँ हो चले आसार-ए-सुब्ह
शाम-ए-ग़म गुज़री नुमायाँ हो चले आसार-ए-सुब्हओढ़ ली लैला-ए-शब ने चादर-ए-ज़र-तार-ए-सुब्ह
मुज़्तर ख़ैराबादी
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ग़ज़ल
चमन में सुब्ह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनमबहार-ए-बाग़ गो यूँ ही रही लेकिन किधर शबनम
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
नसीम-ए-सुब्ह गुलशन में गुलों से खेलती होगीकिसी की आख़िरी हिचकी किसी की दिल-लगी होगी
सीमाब अकबराबादी
बैत
ए सुब्ह-ए-सआ'दत ज़े-जबीं तू हुवैदा
ए सुब्ह-ए-सआ'दत ज़े-जबीं तू हुवैदाईं हुस्न चे हुस्न अस्त तबारक तआ'ला
रियाज़ फरोग़ वारसी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
सवाल - विसाल-ए-मुमकिन-ओ-वाजिब बहम चीस्त
न ज़ुलम-अस्त ईं कि ऐ'न-ए-इ'ल्म-ओ-अ'दलस्तन जौर-अस्त ईं कि महज़-ए-लुत्फ़-ओ-फ़ज़लस्त
मह्मूद शबिस्तरी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
दोश रफ़्तम ब-दर-ए-मय-कद: ख़्वाब आलूदः
दोश रफ़्तम ब-दर-ए-मय-कद: ख़्वाब-आलूदःख़िर्क़ः तर-दामन-ओ-सज्जाद: शराब आलूदः
हाफ़िज़
बैत
हमारे मय-कदे में ख़ैर से हर चीज़ रहती है
हमारे मय-कदे में ख़ैर से हर चीज़ रहती हैमगर इक तीस दिन के वास्ते रोज़े नहीं रहते
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
मय-कदे में पी के मय अव्वल तो चुप रहना पड़ाबात जब निकली तो साक़ी को ख़ुदा कहना पड़ा
मुज़्तर ख़ैराबादी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
ब-कू-ए-मय-कद: हर सालिके कि रह दानिस्त
ब-कू-ए-मय-कद: हर सालिके कि रह दानिस्तदरे दिगर ज़दन अंदेश:-ए-तबह दानिस्त
हाफ़िज़
फ़ारसी कलाम
ऐ माह-ए-ख़ूबाँ यक शबे बा-ख़्वेश मेहमाँ कुन मरावज़ आफ़ताब-ए-रु-ए-ख़ुद चूँ सुब्ह ख़ंदाँ कुन मरा