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ग़ज़ल
रह-ए-इश्क़ में ये सितम रहे फ़क़त एक मुश्त-ए-ग़ुबार परकभी खाल खींची गई मिरी तो चढ़ा दिया दार पर
अज़ीज़ वारसी देहलवी
दोहा
रहिमन एक दिन वे रहे बीच न सोहत हार
रहिमन एक दिन वे रहे बीच न सोहत हारवायु जो ऐसी बह गई बीचन परे पहार
रहीम
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ग़ज़ल
मुज़्तर ख़ैराबादी
शबद
होली - पिय संग खेलौ री होरी
पाँच पचीस एक कै राखौ लै प्रमोधि एक डोरीचली भली बनि आई तहवाँ पिय तें रहि कर जोरी
जगजीवन साहेब
साखी
पतिब्रता का अंग - सब आये उस एक में डार पात फल फूल
सब आये उस एक में डार पात फल फूलअब कहो पाछे क्या रहा गहि पकड़ा जब मूल
कबीर
पद
एक दाना फड़ ज़मीं के अंदर उस से एक दरख़्त हुआ
एक दाना फड़ ज़मीं के अंदर उस से एक दरख़्त हुआफिर बर्ग हुआ और शाख़ हुआ फिर बार-आवर हो पुख़्त हुआ
संत कवि दिलदार
पद
तरवर एक मूल बिन ठाढ़ा बिन फूले फल लागे
चढ़ तरवर दो पंछी बोले एक गुरू एक चेलाचेला रहा सो रस चुन खाया गुरू निरंतर खेला
कबीर
साखी
प्रेम का अंग - ये तत्त वो तत्त एक है एक प्रान दुइ गात
ये तत्त वो तत्त एक है एक प्रान दुइ गातअपने जय से जानिये मेरे जिय की बात
कबीर
दोहा
इंद्रियों का बर्णन - जुदी जुदी पांचौ कहूँ एक एक का भेद
जुदी जुदी पांचौ कहूँ एक एक का भेदजो कोइ इन कूँ बस करै सबहीं छूटैं खेद