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ग़ज़ल
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
बहुत दिलचस्प है 'सीमाब' शाम-ए-वादी-ए-ग़ुर्बतवतन की सुब्ह में कुछ और थीं रंगीनियाँ फिर भी
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
चलते हैं तुझ पे संग-ए-हवादिस इसी लिएमहफ़ूज़ वो है जो न रक्खे बर्ग-ओ-बार-ए-शाख़
शाह रुकनुद्दीन 'इश्क़'
शबद
मोरे अंग न अलसी तेल न मलियो न परमल पीसायों
मोरे छुरी न धारूं लोह न सारूं न हथियारूंसूरज को रिप बिहंडा नाहीं तातैं कहा उठावत भारूं
जाम्भोजी
ग़ज़ल
ख़ुद-बख़ुद 'सीमाब' हैं उन की निगाहें मुल्तफ़ितहै ये वक़्त-ए-ख़ास मसरूफ़-ए-दुआ हो जाइये
सीमाब अकबराबादी
नज़्म
मदीह-ए-ख़ैरुल-मुरसलीन
छींटे देने से न महफ़ूज़ रही क़ुल्ज़ुम-ओ-नीलन बचा ख़ाक उड़ाने से कोई दश्त-ओ-जबल
मोहसिन काकोरवी
नज़्म
साक़िया दौर-ए-इंक़लाबी है
फिर भी महफ़ूज़ है ज़बान-ए-किताबनहीं 'हाफ़िज़' के हम-नवा कमयाब
हसन वारसी गयावी
मनक़बत-ना'त
ऐ तिरी शान-ए-करीमी पे ये उम्मत हो निसारक्या ये पैग़ाम रहेंगे यूँही सारे बे-कार
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
सो के उठना भी है ऐ 'सीमाब' दुनिया में मुहालमर के जी उठना मिरा इक मो'जिज़ा हो जाएगा