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दोहा
विनय मलिका - जैसे सूरज के उदय सकल तिमिर नस जाय
जैसे सूरज के उदय सकल तिमिर नस जायमेहर तुम्हारी हे प्रभु क्यूँ अज्ञान रहाय
दया बाई
मनक़बत-ना'त
वो जिस की ज़ात आली नाज़िश-ए-कौनैन है 'क़ैसर'उसी फ़ख़्रुल-रुसुल ख़ैरुल-बशर की बात करते हैं
क़ैसर वारसी
मनक़बत-ना'त
इसी उमीद पे बैठा हूँ दामन थाम कर उन काये फ़रमा दें कि तू मेरा है ऐ 'क़ैसर' कहीं वारिस
क़ैसर शाह वारसी
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ग़ज़ल
आज तो 'क़ैसर'-ए-हज़ीं ज़ीस्त की राह मिल गईआ के ख़याल-ओ-ख़्वाब में शक्ल दिखा गया कोई
क़ैसर शाह वारसी
ग़ज़ल
तू ने कुछ ऐसी पिलाई ऐ निगाह-ए-चश्म-ए-दोस्तरोज़-ए-अव्वल से तिरा 'क़ैसर' है मस्ताना तिरा
क़ैसर शाह वारसी
ग़ज़ल
उस के कूचः-गर्द क्या समझें ज़र-ओ-दौलत को मालता'नः-ज़न अदना गदा है क़ैसर-ओ-फ़ग़्फ़ूर पर
इब्राहीम 'आजिज़'
सेहरा
सूरज की करण या काहकशाँ या अक़्द-ए-सुरय्या सहरा हैइक नूर का पुतला दूल्हा है इक नूर सरापा सेहरा है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
क़ैसर शाह वारसी
पद
चला हंसा वा देस जहँ पिया बसै चितचोर
बहि देसवा नित्त पुर्निमा कबहुँ न होय अँधेरएक सुरज कै कबन बतावै कोटिन सूरज उँजेर
कबीर
कलाम
फ़ख़्र ये है मैं शह-ए-'वारिस' के दर का हूँ फ़क़ीरमर्तब: 'औघट' नहीं जो क़ैसर-ओ-फ़ग़्फ़ूर का